लिव-इन रिलेशनशिप में महिलाओं के खिलाफ हिंसा और कानूनी सुरक्षा
घरों में महिलाओं के खिलाफ हिंसा
संयुक्त राष्ट्र प्रमुख एंटोनियो गुटेरेस ने 25 नवंबर 2022 को महिलाओं के खिलाफ हिंसा के उन्मूलन के लिए अंतर्राष्ट्रीय दिवस पर की गई अपनी टिप्पणी में कहा कि “हर 11 मिनट में, एक महिला या लड़की को एक अंतरंग साथी या परिवार के सदस्य द्वारा मार दिया जाता है और हम जानते हैं कि अन्य तनाव, COVID-19 महामारी से लेकर आर्थिक उथल-पुथल तक, अनिवार्य रूप से अधिक शारीरिक और मौखिक दुर्व्यवहार का कारण बनते हैं ”।
द जेंडर स्नैपशॉट 2022 में पाया गया कि "15-49 वर्ष की प्रत्येक 10 महिलाओं और लड़कियों में से एक को पिछले वर्ष में एक अंतरंग साथी द्वारा यौन या शारीरिक हिंसा का शिकार होना पड़ा,"। इस दुर्व्यवहार की महिलाओं को भारी कीमत चुकानी पड़ती है। यह जीवन के सभी क्षेत्रों में महिलाओं की भागीदारी को सीमित करता है, उनके मूल अधिकारों और स्वतंत्रता से वंचित करता है। महिलाओं के अधिकारों के संबंध में की गई प्रगति के बावजूद, दैनिक हिंसा एक गहरी चिंता बनी हुई है। बढ़ती सामाजिक-आर्थिक असमानताओं के साथ हिंसा गंभीर होती जा रही है; महिलाएं न तो घरों में सुरक्षित है न सड़कों पर। सार्वजनिक और निजी स्थानों पर महिलाओं की हत्या की जा रही है, जिंदा जलाया जा रहा है, पीट-पीटकर मार डाला जा रहा है, बलात्कार किया जा रहा है। महिलाओं के स्वतंत्र होने का विचार और उनकी अपनी राय और इच्छाएं अभी भी कई समाजों के लिए अभिशाप हैं।
भारत में घरों में भीषण हिंसा
वर्तमान संदर्भ में, श्रद्धा के मामले और हाल ही में रिपोर्ट किए गए अन्य मामलों के 'लव जिहाद' और ऑनर किलिंग के आख्यानों का उपयोग मीडिया, धार्मिक समूहों और राजनेताओं द्वारा किया गया। ऐसे अपराधों के लिए लिव-इन रिलेशनशिप और महिलाओं को दोष देते हुए अरेंज मैरिज का बचाव करने के लिए किया गया। एक रिश्ते में प्यार या हिंसा नैतिकता की धारणाओं से लिपटी होती है, इस तथ्य को नज़र अंदाज किया गया। ये आख्यान उस डेटा को नज़रअंदाज़ कर देते हैं कि धारा 498A (विवाहित महिलाओं के प्रति क्रूरता), या 304B IPC (दहेज हत्या) के तहत सबसे अधिक अपराध दर्ज किए गए हैं। महिलाओं को हिंसा का अपराधीकरण करने वाले कानूनी प्रावधानों के बावजूद दहेज के कारण या अन्यथा अपने ससुराल में उत्पीड़न का सामना करना पड़ता है। कई मामलों में महिलाओं की बेरहमी से हत्या कर दी जाती है। पुरुषों ने युवतियों का गला घोंटा है, उन्हें जहर दिया है, उन्हें जिंदा जलाया है, या उन्हें आत्महत्या के लिए मजबूर किया है। हिंसा के ये कार्य एक पुरुष और महिला के बीच ऐतिहासिक रूप से असमान शक्ति अधिकार संबंध में निहित हैं।
महिलाओं के खिलाफ हिंसा, चाहे अरेंज मैरिज में हो या लिव-इन रिलेशनशिप में, युगों से चली आ रही है, हालांकि वर्षों से हिंसा की गंभीरता और परिमाण बढ़ रहा है। महिलाएं अत्यधिक हिंसा का सामना कर रही हैं और यह पारंपरिक अरेंज मैरिज के साथ-साथ पसंद के रिश्तों में भी हो रहा है। हालांकि मीडिया द्वारा केवल कुछ मामलों को ही उजागर किया जाता है, फिर भी, हर दिन भीषण हिंसा हो रही है। एनसीआरबी द्वारा जुटाए गए आंकड़ों के अनुसार, 2018, 2019 और 2020 के दौरान दहेज निषेध अधिनियम, 1961 के तहत दर्ज मामलों की संख्या क्रमशः 12826, 13307 और 10366 है। इसके अलावा, इन वर्षों के दौरान दहेज मृत्यु के तहत पंजीकृत मामले क्रमशः 7167, 7141 और 6966 हैं।
महिलाओं द्वारा अपने ससुराल में बढ़ती हिंसा का डेटा अन्यथा एन एफ एच एस के दशकों के परिणामों से प्रमाणित होता है, जो दर्शाता है कि 18 से 49 वर्ष की आयु की विवाहित महिलाओं को अन्यथा या गर्भावस्था के दौरान हिंसा का सामना करना पड़ा है। महिलाओं ने शारीरिक चोटों का सामना करने की सूचना दी, जिसमें आंखों में चोट, मोच, अव्यवस्था, जलन, गहरे घाव, टूटी हुई हड्डियां, टूटे दांत और अन्य गंभीर चोटें शामिल हैं। हिंसा उनके पतियों के द्वारा की जाती है। अधिकांश महिलाओं ने बताया कि उन्होंने कभी मदद नहीं मांगी या ऐसी हिंसा के बारे में किसी को नहीं बताया।
पहले दर्ज किए गए कई मामलों में, महिलाओं को उनके पति या लिव-इन पार्टनर के रूप में पुरुषों द्वारा जिंदा दफन कर दिया गया और उनकी क्रूरता से हत्या कर दी। उदाहरण के लिए, 28 मई, 1991 को शकेरेह नमाजी को कथित तौर पर बैंगलोर में उसके घर के पिछवाड़े में जिंदा दफन कर दिया गया था। मुख्य संदिग्ध उसका दूसरा पति श्रद्धानंद उर्फ मुरली मनोहर मिश्रा था। तीन साल के स्टिंग ऑपरेशन के बाद, उसने संपत्ति पर कब्जा करने के लिए हत्या की बात स्वीकार की। उसने पुलिस को आवास में दफनाए गए अवशेषों तक भी पहुंचाया। वह जेल में आजीवन कारावास की सजा काट रहा है, हालांकि उसके वकील ने हाल ही में उसकी रिहाई के लिए आवेदन दायर किया है।
इसी प्रकार चर्चित तंदूर हत्याकांड में नैना साहनी की सुशील शर्मा ने 2 जुलाई 1995 को दिल्ली में अपने घर में विवाहेतर संबंध के संदेह में हत्या कर दी थी। शर्मा ने उसे गोली मार दी, उसके शरीर के टुकड़े-टुकड़े कर दिए और उसके दोस्त द्वारा संचालित एक रेस्तरां में 'तंदूर' में भर दिया। उसे मौत की सजा सुनाई गई थी, बाद में आजीवन कारावास की सजा में परिवर्तित किया गया। दिल्ली उच्च न्यायालय द्वारा रिहाई के आदेश के बाद वह दिसंबर 2018 में जेल से बाहर आया।
देहरादून में 2010 में, एक सॉफ्टवेयर इंजीनियर, राजेश गुलाटी ने चार साल के जुड़वा बच्चों की मां अनुपमा की हत्या कर दी और उसके शरीर को 70 टुकड़ों में काटा और कई दिनों तक डंप किया। अनुपमा उस पर एक्स्ट्रा मैरिटल अफेयर के आरोप लगा रही थी। उसे 2017 में दोषी ठहराया गया था और 15 लाख रुपये के जुर्माने के साथ आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई, हालांकि 2022 में जमानत पर रिहा कर दिया गया।
कई और रिपोर्ट और गैर-रिपोर्ट किए गए मामले हैं, जहां पुरुषों ने विभिन्न कारणों से अपनी पत्नियों और पार्टनर की बेरहमी से हत्या कर दी। इसलिए, यह कहा जा सकता है कि सार्वजनिक स्थलों के अलावा महिलाओं के लिए खतरनाक स्थान उनका वैवाहिक घर है। लिव-इन रिलेशनशिप में, महिलाएं अपने साथी चुनने का जोखिम उठा रही हैं, और अरेंज्ड मैरिज में भी महिलाओं को एक हिंसक बंधन में 'एडजस्ट' करने के लिए मजबूर किया जाता है। कानूनी प्रणाली ऐसे संबंधों में मौजूद असमानता पर सवाल उठाने में विफल रही है। इसलिए, व्यवस्थाओं पर पुनर्विचार करना ज़रूरी है। उन महिलाओं की स्थिति को समझना आवश्यक है जो अपने साथी का चयन करती हैं और उन महिलाओं की भी जिन्हें हिंसक विवाह में रहने के लिए मजबूर किया जाता है।
महिलाएं हिंसक रिश्ते को क्यों नहीं छोड़ सकतीं?
आम विमर्श में यह सवाल उठाया जाता है कि महिला हिंसक घर क्यों नहीं छोड़ सकती। यह इस तथ्य को ध्यान में रखे बिना है कि एक वैवाहिक संबंध, या एक पुरुष-महिला का रिश्ता 'रोटी' या 'सुरक्षा' के बदले सेक्स या अंतरंगता के आदान-प्रदान से कहीं अधिक है। साथ ही, सदियों से चली आ रही पितृसत्तात्मक कंडीशनिंग और समाजीकरण ने महिलाओं को यह विश्वास दिलाया है कि उनका उद्धार विवाह में है। एक महिला जो ऐसे माहौल में पली-बढ़ी है जब हिंसा का सामना करती है तब वह हैरानी, विश्वासघात, और भय महसूस करती है । वह खुद को दोषी समझती है और चाहती है कि हिंसा किसी तरह रुक जाए। हिंसा का सामना करने वाली महिला चुप रह सकती है, इसे सही ठहरा सकती है या इसे रोकने के लिए कदम उठा सकती है। उसकी प्रतिक्रिया कई कारकों द्वारा निर्धारित हो सकती है जो सामाजिक, या आर्थिक मजबूरियां हैं और यह उसकी न्याय की भावना के अलावा संसाधनों और समर्थन तंत्र की उपलब्धता पर आधारित है। इसके अलावा, अधिक हिंसा को आकर्षित करने के डर, प्रतिशोध के डर, आवास और वित्त की कमी, बच्चों की फिक्र, कलंक, कानूनी साक्षरता की कमी और परिवारों में दोयम दर्जे अन्य कारण हैं। पुरुष प्रधान समाज में अनुशासन की आड़ में हिंसा अदृश्य रहती है जबकि भावनाओं का दायरा महिलाओं को हिंसक स्थिति से बाहर निकलने से रोकते हैं। पितृसत्तात्मक समाजों में, महिलाओं के पास विवाह और परिवार के अलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं होता जो उन्हें सहारा दे सके। सामाजिक मानदंड परिवारों को अपनी विवाहित बेटियों को वापस स्वीकार करने से रोकते हैं। विशेष रूप से, लिव-इन रिलेशनशिप में, एक महिला को अपने परिवार, दोस्तों या समाज का समर्थन हासिल करना मुश्किल होता है। समाज या परिवार ऐसे रिश्तों में महिलाओं को दोष देते हैं न कि पुरुषों को। एक महिला ही अपराधबोध और शर्म का बोझ उठाने के लिए मजबूर है। प्रचलित वर्जनाएँ, और रूढ़ियाँ, सभी विशेषाधिकार पुरुषों को देते हैं जबकि दोष महिलाओं को।
पुरुष हिंसा क्यों करते हैं?
इस सवाल पर कम जोर दिया जाता है कि जब हिंसा कानूनी रूप से प्रतिबंधित है तो पुरुषों ने महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार करना क्यों चुना। पुरुष प्रधान समाज में, हिंसा को सामाजिक मानदंडों द्वारा स्वीकृत किया जाता है। मारपीट करने वाला निर्वात में कार्य नहीं करता है बल्कि उसके कार्यों को सामाजिक व्यवस्था द्वारा वैध किया जाता है। यह असमान सामाजिक व्यवस्था महिलाओं का अवमूल्यन करती है। कुछ मामलों में मीडिया और अदालतें मारपीट करने वालों को निर्दोष, दया का पात्र और सज्जन के रूप में चित्रित करती हैं, जो तनाव के कारण या शराब, पत्नी के चिड़चिड़े व्यवहार या वह चरित्रहीन है, इसलिए हिंसा कर रहा है। महिलाओं के खिलाफ हिंसा से संबंधित सभी मामलों में, सार्वजनिक या निजी डोमेन में, पीड़ित की तुलना में दुर्व्यवहार करने वाला एक शक्तिशाली व्यक्ति होता है। वह 1) अपने लाभ के लिए स्थिति को स्पष्ट करने के लिए कौशल और क्षमताओं के मामले में बेहतर ढंग से सुसज्जित है; 2) शिकायतकर्ताओं का मनोबल गिराने के लिए झूठ या छल जैसी युक्तियों का उपयोग करता है; 3) संसाधनों को नियंत्रित करता है और; 4) अदालतों में खुद का प्रतिनिधित्व करने के लिए वकीलों को नियुक्त करने की बेहतर स्थिति में है। महिला हिंसा से संबंधित मामलों में न्याय करते समय कानूनी प्रणाली, विवाह में असमानताओं या महिलाओं की vulnerability के कारकों को शायद ही ध्यान में रखती है।
लिव-इन रिलेशनशिप और कानून
मर्दाना दुनिया में, एक रिश्ते में प्यार और महिलाओं के प्रति हिंसा की सोच परंपराओं और नैतिकता से जुड़ी होती है। पितृसत्तात्मक समाज में महिलाएं ही परिवार और समाज के सम्मान, शर्म, और नियमों का पालन करने के दायित्वों के बोझ तले दबी होती हैं, जबकि पुरुषों के लिए ऐसे कोई सामाजिक, कानूनी या नैतिक मानदंड नहीं होते। संविधान प्रत्येक व्यक्ति को सम्मान के साथ जीने का अधिकार प्रदान करता है, फिर भी, सामाजिक और नैतिक मानदंड ऐसे अधिकारों को कम करने का कार्य करते हैं। समानता और सामाजिक न्याय कागजों पर मौजूद हैं लेकिन वास्तविक जीवन की स्थितियों में नहीं।
लिव-इन रिलेशनशिप ऐसी स्थितियाँ हैं जहाँ 18 वर्ष से अधिक आयु के दो वयस्क एक-दूसरे से शादी किए बिना सहवास करते हैं। विवाह और लिव-इन संबंध के बीच का अंतर औपचारिक व्यवस्था के साथ आने वाले कानूनी अधिकारों और दायित्वों की प्रयोज्यता है। लिव-इन रिलेशनशिप, चूंकि औपचारिक रूप से पंजीकृत नहीं होते हैं, इन्हें समाप्त करने के लिए औपचारिक तलाक की आवश्यकता नहीं होती। हालाँकि, अदालतें, लिव-इन रिलेशनशिप पर फैसले सुनाते समय, उनकी तुलना विवाह से करती हैं ताकि यह निर्धारित किया जा सके कि रिश्ता विवाह की प्रकृति में हैं। कुछ मामलों में, पौराणिक पाठ में राधा और भगवान कृष्ण के बीच संबंध को लिव-इन संबंधों को सही ठहराने के लिए किया गया, जबकि एक आदर्श विवाह, भगवान राम और सीता के बीच के विवाह के समान माना जाता है। कुछ लिव-इन रिलेशनशिप मामलों में, अदालतों ने महिलाओं के अधिकारों को बरकरार रखा है, जैसे महिला साथी का घरेलू हिंसा का मामला दर्ज करने का अधिकार, भरण-पोषण का अधिकार, ऐसे संबंधों से पैदा हुए बच्चों के अधिकार आदि।
लिव-इन रिलेशनशिप : कानून बनाम नैतिकता
लिव-इन रिलेशनशिप, कानूनी रूप से स्वीकृत है, लेकिन भारत में इसे वर्जित माना जाता है। वैधता heterosexual विवाह को दी जाती है; अन्यथा, अन्य सभी प्रकार के संबंधों को नाजायज माना जाता है। इस विषय पर किसी विशिष्ट विधान या नियमों के अभाव में सर्वोच्च न्यायालय ने अपने कुछ निर्णयों में ऐसे संबंधों को विनियमित करने के लिए कुछ दिशानिर्देश जारी किए हैं।
पश्चिमी देशों में, 'पूर्व-विवाह समझौते' (pre-nuptial agreement) की अवधारणा ने अमेरिका में सहवास को संस्थागत बना दिया, जिससे उन्हें एक विवाहित जोड़े के समान अधिकार मिल गए। यूरोपीय देशों में भी इसी तरह के प्रावधान हैं। कनाडा में, लिव-इन रिलेशनशिप को 'कॉमन लॉ मैरिज' के रूप में मान्यता प्राप्त है। यदि जोड़ा लगातार 12 महीनों तक वैवाहिक संबंध में रहता है तो इस बंधन को कानूनी मान्यता मिल जाती है। समझौतों के इन रूपों में भागीदारों की संपत्ति और संपत्ति, ऐसे रिश्तों से पैदा हुए बच्चे के अधिकार और अन्य विभिन्न कारकों को भी ध्यान में रखा जाता है।
भारत में, लिव-इन रिलेशनशिप की वैधता अनुच्छेद 19 (ए) - भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार और अनुच्छेद 21- जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार की सुरक्षा से उपजी है। जीवन का अधिकार किसी व्यक्ति की स्वतंत्रता पर जोर देता है कि वह हर तरह से जीवन का आनंद ले सके, जब तक कि मौजूदा कानूनों द्वारा निषिद्ध न हो। एक व्यक्ति को अपनी रुचि के व्यक्ति के साथ शादी के साथ या उसके बिना रहने का अधिकार है।
कोर्ट ने लिव-इन रिलेशनशिप को वैध बनाने का फैसला दिया
लिव-इन रिलेशनशिप से जुड़े मामले औपनिवेशिक काल के दौरान और आजादी के बाद भी तय किए गए हैं। उदाहरण के लिए, आंद्राहेनेडिज दीनोहामी बनाम विजेतुंगे लियानापातबेंडिगे ब्लाहमी (1927) में प्रिवी काउंसिल ने माना "जहां एक पुरुष और एक महिला पति-पत्नी के रूप में रहते हैं, कानून मान लेगा, कि वे एक वैध विवाह के परिणामस्वरूप रह रहे थे" जब तक कि विपरीत स्पष्ट रूप से प्रदर्शित नहीं किया जाता। यही दृष्टिकोण मोहब्बत अली खान बनाम मोहम्मद इब्राहिम खान (1929) में लिया गया, जिसमें अदालत ने कहा कि अनिवार्य है कि लिव-इन रिलेशनशिप वैध होने के लिए, दोनों पति-पत्नी के रूप में रहते हों।
1978 में, बद्री प्रसाद बनाम बोर्ड ऑफ कंसोलिडेटर्स में सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाया कि अगर एक पुरुष और महिला लंबे समय तक पति-पत्नी के रूप में रहते हैं तो शादी की धारणा बनती है। 2001 में, पायल शर्मा बनाम नारी निकेतन में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया कि एक पुरुष और एक महिला का एक साथ रहना अवैध नहीं है।
हालाँकि, शब्दावली और व्याकरण एंड्रोसेंट्रिक बने रहे, जहाँ अदालतों के साथ-साथ समाज ने भी औपनिवेशिक काल के दौरान और वर्तमान संदर्भ में भी महिलाओं का अवमूल्यन करते हुए 'रखैल' और 'कीप' जैसे शब्दों का इस्तेमाल किया है। लिव-इन रिलेशनशिप में रहने वाले पुरुषों के लिए इसका उपयोग नहीं किया जाता, यहां तक कि उन स्थितियों में भी जब पुरुष महिलाओं को धोखा देते हैं, मौजूदा शादी के बारे में झूठ बोलते हों, महिलाओं को धोखा देते हों, या छोड़ देते हों।
लिव-इन रिलेशनशिप और घरेलू हिंसा अधिनियम, 2005
पहली बार घरेलू हिंसा अधिनियम को अधिनियमित करते समय, विधायिका ने उन महिलाओं को अधिकार और सुरक्षा देकर लिव-इन संबंधों को स्वीकार किया, जो कानूनी रूप से विवाहित नहीं हैं, लेकिन एक पुरुष के साथ रह रही हैं, जो विवाह के विचार में पत्नी के समान है, हालांकि पत्नी के बराबर नहीं। घरेलू हिंसा अधिनियम, 2005 की धारा 2(एफ) परिभाषित करती है: "घरेलू संबंध का अर्थ दो व्यक्तियों के बीच संबंध है, जो किसी भी समय एक साझा घर में एक साथ रहते हैं या रहे हैं, जब वे रक्त संबंध, विवाह, या शादी, गोद लेने या परिवार के सदस्यों के रूप में एक संयुक्त परिवार के रूप में एक साथ रहने वाले रिश्ते के माध्यम से"।
लिव-इन रिलेशनशिप को यहां स्पष्ट रूप से परिभाषित नहीं किया गया लेकिन व्याख्या के लिए अदालतों पर छोड़ दिया गया। अदालत ने "शादी की प्रकृति में संबंध" अभिव्यक्ति की व्याख्या की है और यह माना कि लिव-इन रिश्ते 'शादी की प्रकृति' के दायरे में आएंगे। यह प्रावधान, इसलिए, सैद्धांतिक रूप से, महिलाओं को हिंसा की स्थिति में अधिकार देता है।
2006 में, लता सिंह बनाम यूपी राज्य में सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाया कि एक साथ रहने वाले विपरीत लिंग के दो व्यक्ति कुछ भी अवैध नहीं कर रहे हैं।
2010 में, मदन मोहन सिंह बनाम रजनीकांत, और धन्नूलाल बनाम गणेशराम (2015), मामले में कोर्ट ने कहा कि जब एक पुरुष और महिला लंबे समय तक लगातार सहवास करते हैं तब इसे विवाह के पक्ष में माना जा सकता है।
2010 में, एस. खुशबू बनाम कन्नियाम्मल मामले में सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court in the case of S.Kushboo vs. Kanniammal) ने दोहराया कि "हेटरोजेनिक सेक्स के दो वयस्कों की सहमति से लिव-इन संबंध ('व्यभिचार' के स्पष्ट अपवाद के साथ), अनैतिक माना जा सकता है अपराध नहीं "। 2013 में, इंद्र सरमा बनाम वीकेवी सरमा में, अदालत ने फैसला सुनाया कि लिव-इन रिलेशनशिप में एक महिला घरेलू हिंसा अधिनियम के तहत संरक्षित है।
2010 में, वेलुसामी बनाम डी पच्चाईमल में सुप्रीम कोर्ट ने लिव-इन रिलेशनशिप के कानूनी होने के लिए मानदंड निर्धारित किए। यह कहा गया कि युगल को पति-पत्नी के समान होने के नाते खुद को समाज के सामने रखना चाहिए, शादी करने के लिए कानूनी उम्र होना चाहिए, उन्हें अविवाहित होना चाहिए, उन्हें स्वेच्छा से सहवास करना चाहिए, इसलिए, कुछ लिव-इन रिलेशनशिप, जहां दो विवाहित व्यक्ति या एक विवाहित और अन्य अविवाहित व्यक्ति साथ रह रहे हैं, तब यह वैध नहीं माना जा सकता।
लिव-इन रिलेशनशिप में पार्टनर के अधिकार
प्रारंभ में, धारा 125, दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) ने एक विवाहित महिला को पति से गुजारा भत्ता का दावा करने की अनुमति दी। मालिमथ समिति की रिपोर्ट ने 'पत्नी' शब्द की परिभाषा को "एक महिला जो पत्नी की तरह काफी समय तक एक पुरुष के साथ रहती है इस प्रकार रखरखाव का दावा करने के लिए कानूनी रूप से योग्य है" को विस्तारित किया।
चनमुनिया बनाम चनमुनिया कुमार सिंह कुशवाहा (2011) और अजय भारद्वाज बनाम ज्योत्सना (2016) में सुप्रीम कोर्ट ने महिला को गुजारा भत्ता देने का आदेश देते हुए कहा कि लिव-इन रिलेशनशिप में रहने वाली महिलाएं कानूनी रूप से विवाहित पत्नी के लिए उपलब्ध दावों और राहत की समान रूप से हकदार हैं। ललिता टोप्पो बनाम झारखंड राज्य (2018) में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि लिव-इन पार्टनर को साझा घर में रहने के अधिकार सहित अधिनियम के तहत राहत मिलेगी।
आईपीसी की धारा 498ए को लागू करने का अधिकार
2009 में, कोप्पिसेट्टी सुब्बाराव बनाम आंध्र प्रदेश राज्य में सुप्रीम कोर्ट ने लिव-इन रिलेशनशिप में एक महिला को दहेज के लिए उत्पीड़न से बचाने के लिए आगे बढ़ा। न्यायालय ने उस व्यक्ति के इस तर्क का खंडन किया कि धारा 498ए उस पर लागू नहीं होती क्योंकि उसने अपने लिव-इन पार्टनर से शादी नहीं की थी और कहा कि सह-निवास करने वाले मामले में महिला को कानूनी संरक्षण मिलेगा। हालांकि, कई निर्णयों में अदालतों ने यह माना है कि धारा 498-ए के तहत किए जाने वाले अपराध के लिए पार्टियों को शादी करने के उद्देश्य से कुछ प्रकार की सेरेमनी दिखानी होगी।
लिव-इन रिलेशनशिप से पैदा हुए बच्चों के अधिकार (Rights of children born out of live-in relationship)
एस.पी.एस. बालासुब्रमण्यम बनाम सुरुत्तयन (1994), और तुलसा बनाम दुर्घटिया (2008) में सुप्रीम कोर्ट ने कहा यदि एक पुरुष और महिला एक ही छत के नीचे रह रहे हैं, तो यह माना जाएगा कि वे पति-पत्नी के रूप में रहते हैं और उनसे पैदा हुए बच्चे नहीं होंगे नाजायज। नीलम्मा बनाम सरोजम्मा (2006) में यह कहा गया है कि invalid विवाह से पैदा हुआ बच्चा पैतृक संपत्ति में विरासत का दावा करने का हकदार नहीं है, लेकिन स्वयं अर्जित संपत्तियों में हिस्सेदारी का दावा करने का हकदार है। तुलसा बनाम दुर्घटिया (2008) में अदालत ने स्पष्ट किया कि इस तरह के रिश्ते से पैदा हुए बच्चे को नाजायज नहीं माना जाएगा। लिव-इन रिलेशनशिप से पैदा हुए बच्चे पिता की मृत्यु के बाद संपत्ति के उत्तराधिकारी के पात्र होंगे। जून 2022 में, कए कृष्णन बनाम कए वलसन में सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाया कि लिव-इन रिलेशनशिप में पैदा हुए बच्चों को इस शर्त पर वैध माना जा सकता है कि रिश्ते को दीर्घकालिक होना चाहिए न कि 'वॉक इन' 'प्रकृति के।
लिव-इन रिलेशनशिप में वीजा विस्तार का अधिकार
भ्रम बना है - पितृसत्ता की जड़ें गहरी हैं
क्या होना चाहिए?
एडवोकेट डॉ शालू निगम
लेखिका सामाजिक कार्यकर्ता, अधिवक्ता व स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।
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Labels: domestic violence, legal safeguards, Live-in relationship, violence against women