Saturday, October 14, 2023

Dowry Violence

 Dowry Violence 

Excerpts from the title Dowry is a Serious Economic Violence: Rethinking Dowry Law in India

For more see this book https://www.amazon.in/Dowry-Serious-Economic-Violence-Rethinking/dp/B0C5KLDF3P

Arendt[1] in her renowned book titled Eichmann in Jerusalem, applied the phrase `banality of evil’ to determine how, during the Holocaust, ordinary people committed extraordinary crimes and yet escaped their criminal liabilities because the grave seriousness of the crime was trivialized, routinized, and reduced to `banality’. In the Nazi regime, irrevocable crimes against humanity were committed in a systematic way on a daily basis and accepted without moral repulsion or political indignation[2]. In the same way, for decades, the horrific crimes of dowry violence and wrongful deaths have been reduced to `banality’ in India. 

Dowry-related violence is not only destroying lives, but it is also adversely affecting the way society contemplates it and distances itself from its dire consequences. In everyday lives, the incidences of dowry-related violence are normalized and routinized legally as well as socially without recognizing how these harmfully affect the daily lives of half of humanity. Rather, over the period, generations of men and women are being conditioned and socialized to accept this gruesome patriarchal violence silently, without thinking about it, without questioning it, and without resisting it. Moreover, the ghastliness of pervasive violence is shielded by a culture of carnival around it.



[1] Arendt Hannah (1963) Eichmann in Jerusalem, The Viking Press, USA

[2] Butler Judith (2011) Hannah Arendt’s challenge to Adolf Eichmann, The Guardian, August 29, https://www.theguardian.com/commentisfree/2011/aug/29/hannah-arendt-adolf-eichmann-banality-of-evil

Labels: ,

 


Judith Butler (2020) described some lives as `ungrievable’ which cannot be mourned for because they never lived and remained uncounted. Perhaps, women who are dying due to dowry violence in homes are such ungrievable, uncounted lives – the lives that no one wants to protect, no one wants to mourn, and no one wants to remember.  

For more see this book https://www.amazon.in/Dowry-Serious-Economic-Violence-Rethinking/dp/B0C5KLDF3P


Labels: ,

Sunday, August 6, 2023

 

Dowry is a Serious Economic Violence: Rethinking Dowry Law in India 

Hardcover – 13 May 2023


This book is about the prevailing practices of dowry, its mechanisms, and the dowry laws as they exist in India. It argues that the practice of dowry is evolving in the commercialized neoliberal while the law has failed to keep pace with the socio-economic changes. Dowry, as it is practiced today, involves gruesome forms of economic violence, including extortion, blackmail, and exploitation of women and their families. The current legal framework ignores this triad of oppression consisting of compulsive, arbitrary dowry demandscoercion, and dowry-related violence, and therefore, it suggests rethinking the socio-legal discourse surrounding dowry in India.

Labels: , ,

Friday, December 30, 2022

 

दहेज प्रथा अभी भी क्यों कायम है जब कानून द्वारा इसे प्रतिबंधित कर दिया गया?


30 Dec 2022




शिंदे ने तब समाज में व्याप्त गहरी असमानताओं पर सवाल उठाए। परिवारों और समाजों के भीतर संरचनात्मक भेदभाव और असमानताओं से संबंधित ये प्रश्न आज के संदर्भ में अभी भी मान्य हैं और इन पर चर्चा, बहस और उत्तर की आवश्यकता है। 

हर दिन मरने से एक बार मरना बेहतर है ... हम मरना नहीं चाहते हैं लेकिन मौत उनके दुर्व्यवहार से बेहतर है"। "हमारी मौत का कारण हमारे ससुराल वाले हैं"। 

कमलेश, ममता और मीना का अपने एक रिश्तेदार को एक व्हाट्सएप संदेश (तीन बहनें जिन्होंने जून 2022 में साथ आत्महत्या कर ली थी) 

जून 2022 में, तीन बहनें, कमलेश, ममता (दोनों गर्भवती थीं) और मीना, चार साल के बच्चे और एक 22 दिन के शिशु के साथ एक कुएं में मृत पाई गईं। घटना जयपुर के बाहरी इलाके में एक गांव की है। बहनों ने शायद पूरी तरह असहाय अवस्था में आत्महत्या कर ली। उन्होंने अपने वैवाहिक परिवार को, जिसने मोटी रकम की मांग की, दोषी ठहराते हुए यह संदेश छोड़ा। बहनों ने तीन भाइयों के साथ एक ही घर में शादी की। उनके पिता सरदार मीणा ने बताया कि उनके पतियों ने उनकी पढ़ाई पर रोक लगा दी है और उन्हें दहेज के लिए लगातार परेशान किया करते थे, जबकि टीवी सेट और रेफ्रिजरेटर सहित बहुत कुछ दिया जा चुका था। सरदार मीणा छह बेटियों के पिता हैं और एक किसान के रूप में अपनी अल्प आय पर जीवित हैं। परिजनों के मुताबिक, दहेज की मांग पूरी नहीं करने के कारण बहनों को लगातार हिंसा का सामना करना पड़ा। पुलिस ने दहेज प्रताड़ना और घरेलू शोषण के आरोप में तीन पतियों और उनकी मां और बहन को गिरफ्तार किया है। 

यह अकेला मामला नहीं है, एनसीआरबी के आंकड़ों से पता चलता है कि दहेज निषेध अधिनियम, 1961 के तहत 2018, 2019 और 2020 के दौरान दर्ज मामलों की संख्या क्रमशः 12826, 13307 और 10366 है। इसके अलावा, इन वर्षों के दौरान दहेज मृत्यु से संबंधित धारा 304 बी, आईपीसी के तहत दर्ज मामलों की संख्या क्रमशः 7167, 7141 और 6966 है। ताजा रिपोर्ट के अनुसार, 2021 में भारत में 45,026 महिलाओं ने आत्महत्या से मौत की; लगभग हर 9 मिनट में 1, जो चिंता का विषय है। 

कई रिपोर्ट किए गए और गैर-रिपोर्ट किए गए मामले में महिलाओं को दहेज के लिए प्रताड़ित किया गया और उनकी हत्या कर दी गई। ऐसे भी मामले हैं जिनकी रिपोर्ट दर्ज नहीं की गई क्योंकि ये घटनाएं घर की गोपनीयता में हुईं या दुर्घटनाओं के रूप में दर्ज की गई। कई महिलाएं जैसे कि तीन बहनें, अपने दैनिक जीवन में खतरनाक स्थिति से निपट रही हैं।  पुरुषों और उनके परिवारों के लाभ और लालच के लिए महिलाओं को उत्पीड़ित किया जाता है। समाज ऐसे अपराधों को नकारता है। प्रत्येक घटना को अनदेखा किया जाता है।  इसके बारे में सोचना तो दूर की बात है। 

शादी के दौरान उपहारों के आदान-प्रदान की आड़ में महिलाओं की यातना और हत्या की परंपरा सदियों से युवा महिलाओं के जीवन पर भारी पड़ रही है और यह प्रवृत्ति दहेज के आदान-प्रदान पर रोक लगाने और दहेज हिंसा के अपराधीकरण करने वाले कानूनों के बावजूद लगातार बनी हुई है और बढ़ रही है। 1961 में दहेज निषेध अधिनियम लागू होने पर सरकार ने दहेज उन्मूलन का संकल्प लिया, लेकिन दशकों से, सरकार ने अपने लक्ष्यों को हासिल नहीं किया है और देश की महिलाओं से किए गए अपने वादों को तोड़ दिया। सरकार महिलाओं के अस्तित्व के प्रति उदासीन है। 

दहेज अवैध है फिर भी इसका दायरा और आकार बढ़ रहा है


कई विद्वानों जैसे एमएन श्रीनिवास के अनुसार दहेज ने एक प्रथा के रूप में Bride price या दुल्हन की कीमत के रिवाज को बदल दिया है (जहां दूल्हा दुल्हन के माता-पिता और परिवार को दुल्हन की सेवाओं के नुकसान के लिए भुगतान करता था)। इसके अलावा, दहेज के रूप लगातार विकसित हुए, जहां प्रारंभिक तौर पर दहेज में पारंपरिक कपड़े और आभूषण होते थे, बाद में दोनों पक्षों ने दहेज़ का मोल-भाव करना शुरू कर दिया, जिसमें बड़े उपहारों, अपेक्षित नकदी और अन्य उपभोक्ता वस्तुओं की मांग की जाने लगी। धीरे-धीरे दिखावा और दहेज का आकार, दोनों बढ़ने लगे और दहेज प्रथा 'दूल्हे की कीमत' में परिवर्तित हो गयी - अर्थात दूल्हे की शिक्षा, आय और उसके परिवार की स्थिति के आधार पर उपलब्ध सर्वोत्तम दूल्हे को खरीदने की मांग। 

REDS (2006) सर्वे के अनुसार, 1960-2008 के दौरान किए गए 95 प्रतिशत विवाहों में दहेज दिया गया। 2017 में केपीएमजी की एक रिपोर्ट में 25 से 30 प्रतिशत की वार्षिक वृद्धि दर के साथ 'भारतीय विवाह उद्योग' का लगभग 50 अरब डॉलर होने का अनुमान लगाया गया था। 2020 में महामारी के कारण लगाए गए लॉकडाउन के साथ, शादी के बाजार ने 'वर्चुअल विवाह' (आभासी शादियों), 'टेक समारोह ' (तकनीकी समारोह) और मेटा-वर्स की शुरुआत के साथ एक नया मोड़ ले लिया है। यह अनुमान है कि 10 वर्षों में शादी का बाजार 0.5 ट्रिलियन डॉलर तक बढ़ सकता है। हालांकि दहेज एक हिंदू उच्च जाति प्रथा के रूप में माना जाता है, अब यह निचली जातियों, जनजातियों, मुसलमानों, ईसाई, जैन और सिखों सहित अन्य समुदायों में फैल गया है। कानून धन के हस्तांतरण पर रोक लगाता है, फिर भी दहेज की प्रथा का विस्तार हो रहा है । 

वर्तमान परिदृश्य में, दहेज का विस्तार किया जा रहा है, अब, शादी की पार्टियों, थीम शादी, आदि पर काफी खर्च किया जा रहा है। कम आय वाले परिवारों की दुल्हनों के लिए, इस तरह के भव्य विवाह समारोहों पर अधिक खर्च करने से वित्तीय बोझ बढ़ जाता है और कई लोग कर्ज लेने को मजबूर हो जाते हैं। यह खर्च दुल्हन की संपत्ति में इजाफा नहीं करता है, फिर भी दुल्हन के माता-पिता इतना बड़ा खर्च करने के लिए कर्ज लेने को मजबूर हैं। 

वर्षों से दहेज हत्या के मामलों के विश्लेषण से पता चलता है कि दहेज की मांग किसी भी तरह से उपहारों का एक साधारण आदान-प्रदान नहीं है, बल्कि यह आसानी से धन और जल्दी से लाभ प्राप्त करने का साधन है। कभी-कभी, दूल्हे और उसके परिवार द्वारा की गई तर्कहीन अपेक्षाएँ और माँगें इतनी अधिक होती हैं कि उनका दुल्हन की पारिवारिक आय से कोई संबंध नहीं होता। अक्सर, दुल्हन के माता-पिता आर्थिक रूप से मनमानी मांगों को पूरा करने में असमर्थ होते हैं। अपर्याप्त दहेज के परिणामस्वरूप दुल्हन के प्रति अधिक हिंसा होती है जहां दुल्हन के माता-पिता अपनी बेटी की शादी को बचाने, और पति और ससुराल वालों को खुश करने के लिए धन जुटाने के लिए संघर्ष करते हैं। 

दशकों से दहेज प्रथा ने परिवारों और समाज में महिलाओं की स्थिति का अवमूल्यन किया है। विद्वानों ने दिखाया है कि दहेज और बेटियों के उन्मूलन, शिशुहत्या और बालिकाओं की उपेक्षा के बीच गहरा संबंध हैं। यह कहा जाता है कि दहेज के कारण, बेटे को वरीयता देने Son preference की लिंग-चयन की प्रथा बढ़ रही है क्योंकि कई परिवारों को डर है कि वे दहेज नहीं दे पाएंगे। 

प्रारंभिक शोध अध्ययनों ने सुझाव दिया कि समय के साथ, शैक्षिक और आर्थिक स्थिति में सुधार होगा, और पितृवंशीय व्यवस्था में परिवारों के भीतर भूमि और अन्य संसाधनों के उत्तराधिकार पैटर्न में परिवर्तन के साथ बेटियों के अधिकारों की मान्यता के कारण स्थिति बदल सकती है। परन्तु दहेज हिंसा की घटनाओं में कमी नहीं आई। आय में वृद्धि के साथ दहेज प्रथा ने विकराल रूप धारण कर लिया है। दहेज हिंसा के मामलों की बढ़ती संख्या से स्पष्ट है कि 2005 में हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम में किए गए संशोधन जो बेटियों को एक बेटे के समान अधिकार प्रदान करते हैं, दहेज हिंसा के मामलों में अभी तक कमी नहीं ला सके। साथ ही, उपलब्ध आंकड़ों से पता चलता है कि कामकाजी महिलाएं जो वैवाहिक परिवार में पारिवारिक आय में योगदान करती हैं, उन्हें अपने पतियों और ससुराल वालों के हाथों आर्थिक और अन्य प्रकार की हिंसा का सामना करना पड़ता है। व्यापक भौतिकवाद, लालच और भ्रष्टाचार में वृद्धि की स्थिति में, दहेज एक स्त्री-विरोधी और शोषणकारी प्रथा के रूप में पितृसत्तात्मक प्रतिबद्धता को बनाए रखता है जो लैंगिक हिंसा को बढ़ावा देती है। 

दहेज कानून क्यों और कैसे बनाया गया?


दहेज निषेध अधिनियम 20 मई, 1961 को अधिनियमित किया गया। अपने उद्देश्यों और कारणों के बयान में, बिल कहता है, "जनमत को शिक्षित करने और इस बुराई के उन्मूलन के लिए कानून"। दहेज को महंगी शादियों और अनुचित मांगों की समस्या के रूप में देखा गया। इस अधिनियम ने दहेज देना और लेना, इसके लिए उकसाना या इसके लिए मांग को कारावास और जुर्माने से दंडनीय अपराध बना दिया। पर वास्तव में, कानून दहेज लेने वाले और देने वाले दोनों को दंडित करता है, इस तथ्य के बारे में सोचे बिना कि यदि देने वाले को भी दंडित किया जाता है, तो लेने वाले के खिलाफ शिकायत कौन करेगा। 

1975 में, महिलाओं की स्थिति संबंधी समिति (CSWI) ने केरल में केवल एक मामला पाया, जहां एक लड़की के पिता ने दहेज अधिनियम के तहत मामला दर्ज किया था। इसका मतलब यह नहीं है कि दहेज के लिए महिलाओं को प्रताड़ित नहीं किया जाता। दहेज हत्याओं की कड़ी प्रतिक्रिया तब हुई जब लोग दुल्हन को जलाने की बढ़ती घटनाओं के मामले सामने आये। दहेज हत्याओं ने 1970 के दशक में महिलाओं को सड़कों पर उतारा। उन्होंने देखा कि केवल बहुएं ही ' स्टोव-फटने' के कारण मर रही हैं, न कि परिवार के अन्य सदस्य। महिला संगठनों ने दहेज और भ्रष्टाचार के बीच एक कड़ी देखी और बताया कि दुल्हन को जलाने के कई मामले या युवा महिलाओं की आत्महत्या वास्तव में महिलाओं की हत्या थी और ऐसे मामलों से निपटने के दौरान कानूनी कमियों का उल्लेख किया गया। 

महिला आंदोलन द्वारा की जा रही लगातार मांगों पर कानून में संशोधन किया गया और दिसंबर 1983 में भारतीय दंड संहिता की धारा 498A और धारा 304B को पेश करते हुए आपराधिक कानून (दूसरा संशोधन) अधिनियम पारित किया गया। धारा 498A IPC एक महिला के वैवाहिक परिवार द्वारा उत्पीड़न या क्रूरता को दंडित करती है। शादी के सात साल के भीतर एक महिला की अप्राकृतिक मौत आईपीसी की धारा 304बी के तहत दण्डनीय है। ऐसे मामलों में जहां एक महिला अपने पति या उसके रिश्तेदारों से उत्पीड़न के परिणामस्वरूप आत्महत्या करती है, आईपीसी की धारा 306 आत्महत्या के लिए उकसाने को संबोधित करती है। भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 113 में संशोधन किया गया है जो अदालत को अधिकार देता है कि वो मान ले कि यदि कोई महिला शादी के 7 साल के भीतर आत्महत्या कर लेती है तब उसके पति या उसके रिश्तेदारों ने उसके साथ क्रूरता की है। 1984 और 1986 के संशोधन अधिनियमों के साथ, दहेज को फिर से परिभाषित किया। उपहार देने की अनुमति थी, लेकिन ऐसे उपहारों की एक सूची दूल्हा और दुल्हन के लिए अलग-अलग रखी जानी थी। दहेज संबंधी विज्ञापनों पर प्रतिबंध लगा दिया गया। 

अपनी 91वीं रिपोर्ट (1983) में, विधि आयोग ने पाया कि तत्कालीन मौजूदा कानून उस अपराध की प्रकृति को ध्यान में रखने के लिए पर्याप्त नहीं है जहां महिलाओं की हत्या की जाती। दहेज़ हत्या के मामलों में अपराधी परिवार के सदस्य होते हैं और कोई प्रत्यक्षदर्शी नहीं होता। यह देखा गया कि पीड़िता हमेशा एक युवा विवाहित महिला होती है जो पूरी तरह से अपने पति और उसके रिश्तेदारों पर निर्भर होती है। दहेज की लगातार मांग को लेकर उस पर जो दबाव डाला जाता है, उससे वह बेहद दुखी होती है। मृत्यु का तरीका जलन, चोट या जहर होता है और स्थान उसका वैवाहिक घर होता है। कई बार, मामला दर्ज नहीं किया जाता या इसे आत्महत्या या दुर्घटना के रूप में रिपोर्ट किया जाता है। इसलिए, आयोग ने महिलाओं के खिलाफ क्रूरता के रूप में दहेज की लगातार मांगों को शामिल करने के लिए आपराधिक कानूनों के साथ-साथ तलाक कानूनों में संशोधन का सुझाव दिया। आयोग ने 2007 में अपनी 202वीं रिपोर्ट में 1983 में की गई सिफारिशों का समर्थन करते हुए दहेज से होने वाली मौतों की बारीकियों को बताया और यह बताया कि दहेज़ हत्या साधारण हत्या से कैसे अलग है ताकि इस मुद्दे से संबंधित अस्पष्टता को दूर किया जा सके। 

दहेज कानून में संशोधन का सुझाव सुप्रीम कोर्ट के समक्ष दायर एक जनहित याचिका में 2021 में इस बात को फिर उठाया गया कि सख्त कानूनों के बावजूद दहेज हिंसा जारी है और युवा महिलाओं के जीवन को प्रभावित किया जा रहा है। याचिकाकर्ताओं ने सूचना के अधिकार के अधिकारियों के बराबर हर जिले में दहेज निषेध अधिकारियों की नियुक्ति की मांग की, और शादी के सात साल बाद तक महिला को उसके लिए दिए गए उपहार उसके नाम पर पंजीकृत करने के लिए सुझाव दिया, 'दहेज प्रमाण पत्र' जारी करने सहित कई अन्य सुझाव दिए जैसे स्कूलों में पाठ्यक्रम में दहेज के खिलाफ जागरूकता पैदा किया जाना, जोड़ों के लिए अनिवार्य 'पूर्व-विवाह' पाठ्यक्रम इत्यादि। हालांकि, शीर्ष अदालत ने दहेज प्रथा की तीखी आलोचना की, लेकिन याचिकाकर्ताओं को निर्देश दिया कि वे इस मुद्दे को विधि आयोग के समक्ष उठाएं ताकि दहेज हत्या और घरेलू हिंसा से संबंधित कानूनों में संशोधन पर विचार किया जा सके और मौजूदा प्रावधानों को और मजबूत किया जा सके। 

दहेज निषेध अधिनियम लागू होने के छह दशक बाद भी दहेज देना और लेना सामाजिक रूप से स्वीकृत रिवाज है। लेकिन वर्षों के अनुभव से पता चलता है कि दहेज से संबंधित मामलों में सजा की दर कम है। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार, 2006 और 2016 के बीच, हर सात मामलों में से केवल एक ही दोषी पाया गया, पांच को बरी कर दिया गया और एक को वापस ले लिया गया। दहेज हिंसा को रोकने में कानून कमजोर और विफल रहे हैं। कानूनी प्रावधान न तो विवाह में जबरन वसूली की प्रथा को और न ही महिलाओं की क्रूर यातना या हत्याओं को रोक सके। मुक्त बाजार अर्थव्यवस्था, बढ़ते उपभोक्तावाद और लालच के साथ उत्पीड़न के पुराने रूपों ने एक नया आकार लिया। अदालतों में, आरोपी व्यक्तियों मामले पर बहस करने के लिए कानून की तकनीकी बारीकियों का प्रयोग करते हैं, या पुलिस द्वारा जांच को विफल कर दिया जाता है, या पुरुष-प्रधान अदालतों में पुरुषों से सहानुभूति रखने वाले न्यायाधीश तथ्यों को ध्यान में रखने से इनकार कर देते हैं। पीड़ितों को दोषी ठहराते हुए आरोपी व्यक्तियों को बरी कर दिया जाता है। लेकिन सच तो यह है कि महिलाओं को बेरहमी से प्रताड़ित किया जा रहा है और जिंदा जला दिया जा रहा है। कानून तो हैं लेकिन महिलाओं की मौत के मुद्दे पर संवेदनशीलता या जागरूकता गायब है। 

कानूनी सुधारों के बावजूद दहेज प्रथा क्यों कायम है?


कानूनी सुधारों के बावजूद सरकार दहेज प्रथा उन्मूलन में विफल रही है। शायद, समस्या यह है कि दहेज प्रथा को सामाजिक और सांस्कृतिक रूप से समाज द्वारा स्वीकृत किया गया है। कमजोर कानून के अलावा ढीला कार्यान्वयन एक और ग्रे क्षेत्र है। घरों में युवा महिलाओं की असहाय स्थिति नहीं बदली है। दशकों से, लोग दहेज हिंसा और मौतों के बारे में उपलब्ध आंकड़ों की जांच किए बिना शादी के समय दहेज को उपहारों के आदान-प्रदान के रूप में सही ठहराते हैं। उदाहरण के लिए, हाल ही में नर्सों के लिए लिखी गयी समाजशास्त्र पर पाठ्यपुस्तक का दावा है कि दहेज 'बदसूरत दिखने वाली लड़कियों' के माता-पिता को उनकी शादी कराने में मदद करता है। लेखक ने दहेज प्रथा का महिमामंडन करते हुए कई फायदे सूचीबद्ध किये। आक्रोश के बाद, भारतीय नर्सिंग परिषद ने अपमानजनक कृत्य की निंदा करते हुए एक अधिसूचना जारी की, और प्रकाशक को पुस्तक के भविष्य के संस्करणों में आपत्तिजनक अनुभाग को हटाने के लिए कहा। ऐसी पुस्तकों, फिल्मों, वीडियो और अन्य स्त्री द्वेषी और असंवेदनशील सामग्री को बढ़ावा देना खतरनाक है। ऐसे कार्यों के लिए जिम्मेदार लोगों की जवाबदेही निर्धारित करना अनिवार्य है। इस तरह की चूक का भयावह परिणाम निर्विवाद है।

इसके अलावा, कुछ का तर्क है कि दुल्हन को उसके माता-पिता द्वारा प्यार से और पैतृक संपत्ति में उसके हिस्से के बदले में उपहार दिए जाते हैं क्योंकि वह अपने मायके से स्थायी रूप से अपने ससुराल जा रही है। यह माना जाता है कि स्त्रीधन आपात स्थिति में उसके काम आ सकता है या उसके ससुराल में उसकी स्थिति को मजबूत कर सकता है, लेकिन यह गलत है क्योंकि वर्षों से दहेज को दूल्हे के अधिकार के रूप में देखा जा रहा है। इसके अलावा, शादी या दहेज की व्यवस्था में खर्च की गई राशि एक महिला को उसके ससुराल में सुरक्षित जीवन, शांति या स्नेह की गारंटी नहीं देती। दुल्हन अक्सर अपने दहेज का प्रयोग करने से वंचित रहती है क्योंकि दहेज पर ससुराल के सदस्यों का नियंत्रण होता है। 

अगर माता-पिता अपनी बेटी से सच्चा प्यार करते हैं, तो वे उसकी शिक्षा में संसाधनों का निवेश कर सकते हैं, उसे कौशल हासिल करने और उसकी प्रतिभा को आगे बढ़ाने में मदद कर सकते हैं, उसकी क्षमताओं का निर्माण कर सकते हैं और उसे अपने जीवन की शुरुआत से ही स्वतंत्र बना सकते हैं, ताकि किसी भी आपात स्थिति में वह चुनौतियों का सामना करने के लिए अपने प्रशिक्षण और योग्यता का उपयोग कर सकती है। शादी के समय स्वर्ण देने के बजाय प्राथमिकता दी जानी चाहिए कि बेटी किसी भी कौशल में जिसमें वह रुचि रखती है, स्वर्ण पदक और प्रशंसा प्राप्त हो ऐसा करने के लिए प्रशिक्षण देना। इसके अलावा, उसे उपहार देने के बजाय, उसके नाम पर पैसा लंबी अवधि के लिए निवेश किया जा सकता है ताकि वह जब भी आवश्यकता हो उसका उपयोग कर सके। 


दहेज के खिलाफ एक महत्वपूर्ण मजबूत आंदोलन बनाने के लिए एक बहु-आयामी दृष्टिकोण विकसित करने की आवश्यकता है, केवल एक सामाजिक बुराई के रूप में इसकी निंदा करना पर्याप्त नहीं है। दहेज को केवल कानूनी समस्या तक सीमित कर देना पर्याप्त नहीं है। कानून महत्वपूर्ण हैं लेकिन लोगों को बदलने की जरूरत है और उन्हें महिलाओं के साथ सम्मानजनक व्यवहार करना सीखना चाहिए। कानूनों में संशोधन करने, वैकल्पिक प्रावधानों को विकसित करने, महिलाओं को सशक्त बनाने और खुद के लिए जगह बनाने के लिए उनकी क्षमताओं को विकसित करने के अलावा, महिलाओं के खिलाफ हिंसा को रोकने में पुरुषों के साथ होने की आवश्यकता है, परिवारों के भीतर पुरुषों और महिलाओं की स्थिति के बीच संरचनात्मक असमानताओं को चुनौती देना है।

अधिवक्ता शालू निगम

लेखिका सामाजिक कार्यकर्ता, अधिवक्ता व स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।

https://www.hastakshep.com/why-does-the-dowry-system-still-persist-when-it-has-been-banned-by-law/

Labels: , ,